अष्टांग हृदय सूत्रस्थान PDF: फाइल को डाउनलोड करने के लिए आप बिलकुल सही वेबसाइट पर आयें । हम यहाँ आपको अष्टांग हृदय सूत्रस्थान को पीडीऍफ़ में पढने के लिए ऑनलाइन लिंक दे रहें हैं । ऐसा माना जाता है कि अष्टांग आयुर्वेद का प्रशिद्ध टेक्स्ट है । इसे वाग्भट जी ने लिखा था आज से २५०० वर्ष पहले । इस ग्रन्थ में औषधियों और शल्य की जानकारी दी गई है ।
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सबसे पहले जानते हैं अष्टांग ह्रदय सूत्रस्थान के बारे में
अष्टांग हृदय सूत्रस्थान पीडीऍफ़ का विवरण
अष्टांग हृदयम पुस्तक हिंदी पीडीऍफ़ – Highlights
Book | अष्टांग हृदय सूत्रस्थान PDF Download |
Author | महर्षि वाग्भट्ट |
Language | हिंदी |
Size | 73 MB |
Total Pages | 387 |
Online Link | Available |
अष्टांग ह्रदय सूत्रस्थान क्या है ?
यह आयुर्वेद की एक प्रशिद्ध book है । जिसके राइटर वाग्भट जी हैं । ऐसा माना जाता है कि इस पुस्तक को ईशा से 500 साल पहले लिखा गया था । इसमें आयुर्वेदिक दवाओं और शल्य का वर्णन किया गया है । अष्टांग हृदय में 6 खण्ड, जिनमे कुल 120 अध्याय और इन अध्यायों में कुल 7120 श्लोक हैं । ऐसा देखा गया है कि इसमें सबसे पहला खण्ड सूत्रस्थान ही हैं । जिसे अष्टांग हृदय सूत्रस्थान कहा जाता है ।
अष्टांग हृदय सूत्रस्थान के अध्याय
अष्टांग हृदय सूत्रस्थान में कुल 30 अध्याय हैं जो हिन् –
- आयुष्कामीय:
- दिनचर्या
- ऋतुचर्या
- रोगानुत्पादनीय:
- द्रवद्रव्यविज्ञानीय:
- अन्नस्वरूपविज्ञानीय:
- अन्नरक्षा
- मात्राशितीय:
- द्रव्यादिविज्ञानीय:
- रसभेदीय:
- दोषादिविज्ञानीय:
- दोषभेदीय:
- दोषोपक्रमणीय:
- द्विविधोपक्रमणीय:
- शोधनादिगणसङ्र्नह:
- स्नेहविधि:
- स्वेदविधि:
- वमनविरेचनविधि:
- बस्तिविधि:
- नस्यविधि:
- धूमपानविधि:
- गण्डुषादिविधि:
- आश्चोतनाञ्जनविधि:
- तर्पणपुटपाकविधि:
- यंत्र विधि
- शस्त्र विधि
- सिराव्यधविधि:
- शल्याहरणविधि:
- शस्त्र कर्म विधि
- क्षाराग्निकर्मविधि:
कुछ श्लोक सूत्र स्थान के दिनचर्या अध्याय से
ब्राह्मे मुहूर्त उत्तिष्ठेत् स्वस्थो रक्षार्थम् आयुषः ।
दिनचर्या सूत्रस्थान 01
शरीर-चिन्तां निर्वर्त्य कृत-शौच-विधिस् ततः ॥ १ ॥
एक स्वस्थ व्यक्ति को हमेंशा ब्रह्म मुर्हुत में उठना चाहिए । जिससे आयुष मिलता है और स्वास्थ्य की रक्षा मिलती है । व्यक्ति को ब्रह्म मुर्हुत में उठने के बाद दैनिक शौच आदि कर्मों से निवर्त होना चाहिए ।
अर्क-न्यग्रोध-खदिर-करञ्ज-ककुभादि-जम् ।
दिनचर्या सूत्रस्थान 02
प्रातर् भुक्त्वा च मृद्व्-अग्रं कषाय-कटु-तिक्तकम् ॥ २ ॥
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