चित्त की परिभाषा
महर्षि पातंजली द्वारा पतंजली योग दर्शन के दुसरे अध्याय के तीसरे सूत्र में योग की परिभाषा को एक सूत्र में समझाने का बहुत ही सरल प्रयास किया गया है | योगस्य योग्श्च चित्तंवृत्ति निरोध: अर्थात चित्त की वृतियो का निरोध ही योग है | अर्थात योग साधना के द्वारा मन की बहिर्मुखी वृत्तियों को अन्तर्मुखी वृत्तियों में परिवर्तित करना ही चित्त है चित्त मन का बहुत ही महत्वपूर्ण भाग होता है | यही चित्त की परिभाषा बताई गयी है | इस आर्टिकल में हम बात करेंगे चित्त की परिभाषा, चित्त की भूमिया चित्त के अन्तराय आदि के बारे में –

मन, किसी वस्तु या संज्ञा का वह व्यक्तिगत, आत्मपरक अनुभव है जो हर पल बदलता रहता है।
मन की संकल्पना करना बहुत ही कठिन काम है और इसका अलग-अलग भाषाओँ में अलग-अलग विवेचन मिलता है। बौद्ध धर्म ग्रंथो में मन के लिए संस्कृत के चित्त शब्द का प्रयोग किया गया है और इसका भावार्थ अत्यंत व्यापक है । इसमें संज्ञान, धारणा, अनुभव, मूर्त-अमूर्त विचार, मन की भावनाएं, सुख-दुःख का अनुभव, ध्यान में चित्त की भूमिका, एकाग्रता और बुद्धि इत्यादि अर्थ समाविष्ट है। बौद्ध धर्म ग्रंथो में मन का उल्लेख किया गया है उनमे चित्त की सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियों के बारे में वर्णन किया गया हैं।
चित्त त्रिगुणात्मक स्वरूप वाला होता है | चित्त तीन स्वरूपों से मिलकर बनने वाला एक स्वरूप है – मन, बुद्धि और अहंकार
मन – किसी कार्य के बारे में विचार करना की उस कार्य को करे या नही !
बुद्धि – कार्य के लिए निश्चय करना हा या नही !
अहंकार – जहा “मै” आ जाता है वहा अहंकार का स्वरूप स्वत: ही दिखाई देता है |
महर्षि पतंजली ने चित्त के पांच स्वरूपों को दुनिया के सामने रखा क्षिप्त, विक्षिप्त, गूढ़, एकाग्र और निरुद्ध |
जबकि आधुनिक मनोवैज्ञानिको ने आधुनिक समय में मन या चित्त के केवल तीन स्वरूपो को ही माना है –
- चेतन मन,
- अचेतन मन
- अवचेतन मन
और जब तक एक साधक को चित्त की समझ नही होगी वो चेतना को समझ ही नही सकता |
चित्त की पांच वृतिया होती है
महर्षि पतंजली ने मन की पांच वृतियो का वर्णन किया है – प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, और स्मृति | मनुष्य का मन हर पल इनमे से किसी ना किसी वृतियो में ही उलझा हुआ रहता है |
- प्रमाण
मनुष्य मात्र का मन सदैव हर किसी विषय का प्रमाण खोजने के प्रयास में लगा रहता है | और प्रमाण भी ऐसा जिसका साक्ष्य सहित प्रमाण प्राप्त हो सके | प्रमाण को तीन भागो में विभाजित करके समझाया गया है यथा – प्रत्यक्षनुमानागमा: प्रमाणानि |
- प्रत्यक्ष आधारित
- अनुमान आधारित
- आगम आधारित
- प्रत्यक्ष आधारित प्रमाण – वर्तमान स्थिती का वास्तविक अनुभव अर्थात वर्तमान में आप जहा हो वहा की वास्तविक स्थिति के बारे में आपसे कोई सवाल पूछे तो आप प्रत्यक्ष रूप से आपके सामने जो है उसको वास्तविक स्वरूप को देखते हुए जो जवाब दोगे यदि प्रत्यक्ष प्रमाण है | प्रत्यक्ष का सीधा मतलब है जो वास्तविक है आपके अनुभव में है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है |
- अनुमान – यह स्पस्ट नही होता केवल उसके स्वरूप व् आकर के बारे में आप अनुमान लगा सकते हो | किसी नाटक में आपको प्रेम प्रसंग के बारे में दिखाया जाता है जिसमे महिला पुरुष के बीच प्रेम संबंधो को प्रदर्शित किया जाता है | उस समय आपका चित या मन उसे ही वास्तविक स्वरूप में मान लेता है जबकि उस महिला कलाकार और पुरुष कलाकार के बीच वास्तविक स्वरूप में कुछ होता ही नही है | और आप उसे वास्तविकता से जोड़ कर देख लेते हो यही अनुमान प्रमाण है |
- आगम प्रमाण – देखकर, पढ़कर या सुनकर किसी विषय पर विस्वास कर लेना और उसका अनुसरण करना आगम प्रमाण माना गया है |
विपर्यय – विपर्यायों मिथ्याज्ञानम् अतद्रुपप्रतिष्ठ्म
विपर्यय प्रमाण में मन इधर उधर की बातो बेवजह की तर्क-कुतर्को व् मिथ्या जानकारियों में उलझकर प्रमाण खीजने का निष्फल प्रयास में लगा रहता है | ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति अपने विचार, अपनी भावनाये, अपनी इच्छाए , या राय दुसरो पर थोपते है | मन की इसी स्थिति को भी विपर्यय कहा जाता है |
यह विपर्यय की स्थिति भी मन में हीन भावनाओ के चलते उत्पन होती है | जिससे सामने वाले व्यक्ति का अचानक अभिमानी होना नजर आने लगता है | जबकि वो अभिमानी होता नही है आपको अपने अन्दर विपर्यय प्रमाण की उत्पत्ति के कारण आपको ऐसा लगता है | तुम्हे लगता है की सामने वाले इन्सान ने आपका अनादर किया है, सम्मान नही किया है जबकि वास्तिकता में आप इतने विपर्यय में जा चुके होते हो की आप अपना खुद का आदर सम्मान करना ही भूल जाते हो | और उन्हें तुम्हारा व्यवहार देख कर थोडा आश्चर्य होगा | उन्हें लगता है की इसमे अचानक इतने बदलाव कैसे हो गये | अनेको बार आपका बहुत अच्छा दोस्त आपसे अचानक एक दम से बहुत रुखा रुखा व्यवहार करने लगता है आपको खुद ही ऐसा लगने लगता है कि मैंने तो कुछ किया ही नही फिर ये अचानक ऐसा क्यों कर रहे है यही विपर्यय होता है |
विकल्प – “शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:”
विकल्प को मन की तीसरी वृत्ति माना गया है | मन के अन्दर भय, भ्रमित कल्पना व् ऋणात्मक विचारो का चलते रहना जिनका वास्तविकता से कोई मतलब ही नही होता है | ऐसे विचार और वृत्ति ही विकल्प कहलाती है | ऐसी अवस्था में मन या तो मिथ्या ज्ञान में उलझा रहता है या प्रमाण ढूंढता है |
इसमे विकल्प भी दो प्रकार के होते है – किसी सुहाने सपने के बाद बेवजह डर पैदा हो जाना | ऋणात्मक विचारो की अधिकता यदि में ये काम करूंगा तो मुझे कुछ हो जायेगा या मेरी मृत्यु हो जाएगी | ये निराधार कल्पनाये ही विकल्प है |
- निद्रा – “आभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिनिंद्रा”
मन जब किसी भी वृत्ति में उलझा हुआ नही होता है ऐसी स्थिति में वो मन की चौथी वृत्ति निंद्रा अर्थात नींद में चला जाता है | यह एक साधक के लिए अत्यंत आवश्यक अवस्था होती है |
- स्मृति – “अनुभूतविषयासम्प्रमोष: स्मृति”
मन की पांचवी और अंतिम वृत्ति है स्मृति | गुरजे हुए पुराने समय की यादे जो भूतकाल में घटित हो चुकी उन्हें याद करना | जागृत अवस्था में किया गया ध्यान का प्रयास ना तो योग है और ना ही ध्यान है |
चित्त के गुणों का विवेचन
बुद्धि
बुद्धि के अन्दर सात्विक गुण विधमान होता है | इसका अनुसरण करने वाला व्यक्ति ख़ुशी प्राप्त करने वाला और संतोषी प्रवृति का होता है |
मन
मन के अन्दर तामसिक गुण की प्रधानता होती है | मन के साधक कभी संतोषी नही होते है उन्हें एक ख़ुशी मिलने का बाद वो अधिक ख़ुशी की चाह में प्राप्त क हुई ख़ुशी का लाभ भी भलीभांति नही ले पता है |
अहंकार
अहंकार में राजसिक गुण विधमान होता है | यह आपको कभी ख़ुशी हासिल ही नही होने देता है |इन चित्त का त्रिगुणावस्था अर्थात चित्त की तीनो अवस्थाओ के एक हो जाने की अवस्था को प्रधान अवस्था या सबसे अच्छी अवस्था माना जाता है | जिसे एकाग्र अवस्था या निरुद्र अवस्था कहा जाता है | लेकिन ये अवस्था तब तक नही हो सकती है जब तक की आप चित्त के महत्व को अच्छे से नही समझ लेते हो | चित्त को भलीभांति समझने के लिए मन के स्वरूप को, बुद्धि के स्वरूप को, अहंकार के स्वरूप को समझना बहुत ही जरूरी होता है यदि आप इन तीनो के स्वरूप को समझे बिना ही चित्त के स्वरूप को समझने का प्रयास करोगे तो समझना बहुत मुश्किल होगा | ओर चित्त को समझने के लिए चित्त के सभी विषयों को समझना अति आवश्यक है | चित्त की उत्पत्ति, चित्त का स्वरूप, चित्त की कार्य प्रणाली आदि को समझना जरूरी है |
ऐसे समझे अहंकार को
मन के अन्दर जितनी अधिक स्मर्तिया दबा के रखोगे आपका मन किसी विषय के लिय उतने ही अधिक लोजिक या विकल्प आपके सामने रखेगा | जैसे आपको ऑफिस में कोई काम दो दिन में निपटाना है और आज कुछ व्यक्तिगत काम जो बहुत अधिक जरूरी नही है उसका ख्याल आया तो ऐसे में आपका मन कहेगा आज चलते है कल 2 घंटे अधिक काम करके इसे पूरा कर लेंगे | इसमे मन के साथ अहंकार छुपा होता है | ऐसे में आपका चित्त यदि मन के साथ जायेगा तो निश्चित ही दुःख का कारण बनेगा | और ऐसे में हमारी बुद्धि हमे काम को खत्म करने के बाद आपको व्यक्तिगत काम करने के लिए प्रेरित करेगी | यदि आपका चित्त बुद्धि के साथ रहता है तो आपका चित और बुद्धि के द्वारा लिया गया निर्णय आपके सुख का कारण बनेगा |
एक साधक के लिए सुख और दुःख कुछ होता ही नही है य केवल आपके मन की कल्पना मात्र ही है | आप किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए जैसा भाव अपने मन में रखोगे उसके सुख दुःख का परिणाम उसी के हिसाब से निर्धारित हो जाता है | सत्य कडवा होता है जो अक्षर लोगो को दुःख दे जाता है लेकिन अनेको बार सत्य सुख का परिणाम देने वाला होता है | और कई बार सत्य का परिणाम मीठा हो जाता है ऐसे ही दुःख का परिणाम भी सुख देने वाला हो सकता है केवल हमारे, मन की कल्पना के आधार पर सुख दुःख का निर्धारण होता है | जो व्यक्ति चित्त के ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है अर्थात चित्त की वृतियो को अपने वश में कर लेता है उसके लिए सुख दुःख कुछ होता ही नही है |
चित्त और ध्यान का सम्बन्ध
मैडिटेशन के दौरान यदि अपने अपनी चित्त वृतियो को नियंत्रित किया हुआ है तो आप ध्याता बनके ध्यान करने बैठोगे लेकिन इसके विपरीत जिनका चित्त उनके वश में नही है वो ज्ञाता बनकर ध्यान करने बैठते है ऐसे में उनको प्रतिफल भी उसकी के अनुसार प्राप्त होता है |
यदि आपका चित्त आपके वश में है तो आपको मैडिटेशन के वास्तविक स्वरूप में जाने में अधिक समय नही लगेगा | और थोड़े समय के बाद ही आप एकाग्रता में लीन हो जाओगे |
चित्त के प्रसाधन क्या है ? chitt ke prasadhan kya hai ?
चित्त के तीन मुख्य प्रसाधन माने गये है |
- मैत्री
- करुणा
- विदिता
चित्त के अन्तराय क्या है ? chitt ke antray
चित्त के 9 अन्तराय माने गये है –
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्या विरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध |
भुमिकत्वानवस्थितत्वानी चित्तविक्षेपांस्तेअन्तराया || (पा.यों.सू.1/30)
- व्याधि
- स्त्यान
- संशय
- प्रमाद
- आलस्य
- अविरति
- भ्रान्तिदर्शन
- अलब्धभूमिकत्व
- अनवस्थिति
चित्त की भूमिया क्या है ? chitt ki bhumiya in hindi
क्षिप्त है चित्त की भूमिया
यह चित्त की अधार्मिक प्रवृति होती है | इस प्रवृति वाले लोगो में तम गुण की प्रधानता व् रज व् सत्व गुण की न्यूनता रहती है | जिसमे व्यक्ति की प्रवृति स्वार्थी , लोभ, काम क्रोध, मोह आदि जैसी बहिर्मुखी वृत्तियों में फसा होता है | यह मन की सबसे अधिक चंचल प्रवृति मानी जाती है | ऐसी चित्त वृत्ति वाले व्यक्ति के मन का एकाग्र होने की सम्भावना अल्प रहती है |
विक्षिप्त है चित्त की भूमिया
विक्षिप्त भूमि वाले मनुष्य में सत्व गुण की प्रधानता व् रजस व तम गुण की न्यूनता रहती है | विक्षिप्त भूमि वाले व्यक्ति की प्रवृति कभी चंचल तो कभी स्थिर रहती है | ऐसी भूमि निष्काम कर्म और अनाशक्ति के कारण होती है | इस प्रवृति वाले लोग ज्ञान, धर्म, ऐश्वर्य और वैराग्य में होती है | जो की जिज्ञासुओ के लक्षण होते है | इसे चित्त का अस्वभाविक धर्म माना जाता है | विक्षिप्त भूमि वाले व्यक्ति को शास्त्रीय ग्रंथो में सुनने व पढने से अल्प समय के लिए समाधी हो जाती है |
चित्त की भूमिया है मूढ़
रज प्रधान गुण की विधमानता व् सत्व व् तम की न्यूनता रहती है यह आलस्य और निंद्र की प्रवृति वाला होता है इसमे आलस्य राग द्वेष्य के कारण होती है | जिससे मनुष्य की प्रवृति ज्ञान-अज्ञान, धर्म-अधर्म, ऐश्वर्य-अनैश्वर्य , वैराग्य-अवैराग्य होती है | जो की आम इन्सान या यु कहें की एक साधारण व्यक्ति के लक्षण होते है |
एकाग्र चित्त की भूमिया
जिस व्यक्ति में सत्व गुण की प्रधानता और बाकि गुण नाम मात्र के होते है ऐसे व्यक्ति श्रेष्ट माने जाते है ऐसी प्रवृति एक शुद्ध योगी में पाई जाती है | इसमे व्यक्ति अपने चित्त को लम्बे समय तक सात्विक विषय पर अपनी वृत्तियों के अनुसार एकाग्र करके रख सकता है | सम्प्रज्ञात समाधी के चार अवांतर भेद वितर्क, आनंद, विचार और अस्मिता है | समाधी एक सात्विक वृत्ति है जो आवरण अर्थात तम को और विक्षेप अर्थात रज को निवृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है |
चित्त की भूमिया निरुद्ध
निरुद्ध भूमिका में व्यक्ति सभी बहिर्मुखी वृत्तियों से विमुक्त हो जाता है और केवल अन्तर्मुखी वृतियो को ही धारण कर लेता है | जिससे मनुष्य एक स्वरूप में स्थित हो जाता है ये उच्च श्रेणी के योगियों के लक्षण होते है | चित्त का सर्ववृति रहित होना असम्प्रज्ञात समाधी है |
क्षिप्त, विक्षिप्त मूढ़ भूमियो में काम, chitt ki bhumiya क्रोध, लोभ, मोह आदि का उत्पन्न वेग साधन में बाधा उत्पन्न करते है | जबकि एकाग्र और निरुद्ध दोनों भूमिया योग का साधन के रूप में प्रतिफलित होती है | जिनका फल इस प्रकार है –
- वस्तु का वास्तविक रूप प्रकट होना |
- कार्य करने के बंधन में लचीलापन होना
- पांचो क्लेशो का निस्तारण / क्षय करना-
- अस्मिता अर्थात प्रकृति को देखने की शक्तियों का सरल रूप में अनुभव होना |
- राग अर्थात बार बार सुख भोगने की इच्छा |
- अविद्या अर्थात अनित्य को नित्य, अनात्म को आत्म, दुःख को सुख, अशुचि को शुची,समझना |
- द्वेष अर्थात दुःख भोगने के बाद पुन: दुःख न भोगने की इच्छा |
- मरने का भय
- निरोध अवस्था की प्राप्ति होना |
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धन्यवाद!
डॉ.रामहरि मीना